
कांच के महल में कैद खुशियाँ: हिंदी प्रेरक कहानी
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पढ़ने का समयशहर की सबसे ऊँची इमारत, 'स्काई हाई टावर्स' की पच्चीसवीं मंजिल पर बने आलीशान पेंटहाउस में सन्नाटा पसरा हुआ था। बाहर मुंबई की बारिश का शोर था, लेकिन अंदर, करोड़ों के इंटीरियर और इम्पोर्टेड इटालियन मार्बल की ठंडक ने उस शोर को भी दबा दिया था। राघवेंद्र प्रताप सिंह, देश के जाने-माने रियल एस्टेट टायकून, अपनी महंगी रिक्लाइनर कुर्सी पर बैठे शहर की रोशनी को घूर रहे थे। उनके पास दुनिया की हर सुख-सुविधा थी—लग्जरी गाड़ियाँ, नौकरों की फौज, और एक इशारे पर काम करने वाले कर्मचारी। लेकिन फिर भी, मन के किसी कोने में एक अजीब सी रिक्तता थी।
रसोई में खड़ी उनकी धर्मपत्नी, सुमन, अदरक वाली चाय बना रही थीं। कप में चाय छानते हुए उनकी आँखों में बीते दिनों की परछाई तैर गई। उन्हें वो राघव याद आया जो ऑफिस से आते ही जोर से आवाज लगाता था, "सुमन, आज खाने में क्या खुशबू आ रही है?" लेकिन आज का राघव... वो तो जैसे फाइलों और फोन कॉल्स के बोझ तले दब गया था। घर अब घर नहीं, एक फाइव स्टार होटल जैसा लगता था, जहाँ सब कुछ व्यवस्थित तो था, लेकिन उसमें वो गर्माहट नहीं थी। बच्चे बोर्डिंग स्कूल में थे और राघव अपनी ही बनाई सोने की पिंजरे में कैद।
मिट्टी की सौंधी खुशबू और वो पुराना आँगन
उस रात राघव को नींद नहीं आ रही थी। करवट बदलते हुए उनका मन अतीत की गलियों में भटकने लगा। उन्हें अपना छोटा सा कस्बा याद आया। घर छोटा था, छत टपकती थी, लेकिन उस घर का दरवाजा हमेशा खुला रहता था। उनके पिताजी, मास्टर दीनानाथ, भले ही एक साधारण शिक्षक थे, लेकिन पूरे मोहल्ले में उनकी बात का मान रखा जाता था।
राघव को याद आया कि कैसे दीवाली पर उनके घर बनी मिठाई सबसे पहले पड़ोसियों के घर जाती थी। माँ कहती थीं, "बेटा, इंसान की असली कमाई उसके बैंक में नहीं, बल्कि उसके दरवाज़े पर खड़े लोगों की दुआओं में होती है।" वो जमाना ही और था। घर में अभाव था, पर सुकून का प्रभाव बहुत गहरा था।
मोहल्ले का लाडला 'रघु'
कॉलेज के दिनों में राघव सिर्फ राघव नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले का 'रघु' हुआ करता था। किसी चाची को बाज़ार से सामान लाना हो, या किसी बुज़ुर्ग दादाजी को मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ानी हों, रघु हमेशा हाज़िर रहता। उसकी साइकिल की घंटी सुनकर बच्चे दौड़ पड़ते।
पड़ोस वाली सावित्री काकी तो उसे अपनी जान से भी ज्यादा चाहती थीं। विधवा थीं, कोई संतान नहीं थी, इसलिए सारा लाड-प्यार रघु पर लुटाती थीं। रघु भी कॉलेज से आते ही सबसे पहले काकी के घर जाकर आवाज़ लगाता, "काकी, भूख लगी है, आज बेसन के लड्डू हैं क्या?" काकी अपने आँचल से उसका पसीना पोंछतीं और कहतीं, "तू मेरा राजा बेटा है, तेरे लिए तो जान भी हाज़िर है।" उस वक्त रघु की जेब खाली होती थी, लेकिन दिल अमीर था।
वो एक ताना जिसने बदल दी दुनिया
सब कुछ ठीक चल रहा था, तभी एक घटना ने राघव की सोच बदल दी। शहर के एक अमीर दोस्त की शादी में राघव अपने पुराने स्कूटर से पहुँचा। वहाँ उसके फटे जूतों और सादगी का मज़ाक उड़ाया गया। एक अमीरजादे ने हँसते हुए कहा, "अरे रघु, ये समाज सेवा और भाईचारा पेट नहीं भरता। इज़्ज़त कमानी है तो नोट कमाओ, नोट! जिसके पास पैसा है, दुनिया उसी के आगे झुकती है।"
वो शब्द राघव के दिल में तीर की तरह चुभ गए। उसने उसी दिन कसम खाई कि वो इतना पैसा कमाएगा कि पूरा शहर उसे सलाम करेगा। उसने दिन-रात एक कर दिया। शहर आ गया, बिजनेस खड़ा किया, और पीछे मुड़कर नहीं देखा। लेकिन इस दौड़ में वो अपना 'रघु' वाला स्वरूप कहीं पीछे छोड़ आया। अब वो सिर्फ़ 'मिस्टर आर.पी. सिंह' था।
सफलता का नशा और रिश्तों की दूरी
जैसे-जैसे बैंक बैलेंस बढ़ा, वैसे-वैसे राघव का दिल संकुचित होता गया। अब पुराने दोस्तों के फोन आते तो वो झुँझला जाता। सुमन कभी कहती, "सुनिए, गाँव से खबर आई है, काकी बहुत बीमार हैं," तो राघव का जवाब रूखा होता, "कुछ पैसे भिजवा दो, मेरे पास वक्त नहीं है वहाँ जाने का।"
पैसों ने सुविधाओं का ढेर लगा दिया था, लेकिन संवेदनाओं का गला घोंट दिया था। वो भूल गया था कि काकी को पैसों की नहीं, उसके हाथ के स्पर्श की ज़रूरत थी। घर में भी अब वो सिर्फ़ हुकूम चलाता था। सुमन अक्सर छुपकर रोती, क्योंकि उसे उसका पुराना, हँसमुख पति चाहिए था, ये मशीनी पुतला नहीं।
मंदिर की सीढ़ियों पर सत्य का सामना
सावन का महीना था। सुमन की ज़िद के आगे झुककर राघव को शहर के प्रसिद्ध शिव मंदिर जाना पड़ा। वीआईपी कोटे से दर्शन की व्यवस्था थी, इसलिए राघव अकड़ के साथ आगे बढ़ रहा था। भीड़ बहुत थी। सुरक्षाकर्मी आम लोगों को धक्के देकर पीछे हटा रहे थे ताकि 'साहब' निकल सकें।
तभी एक कमजोर, बूढ़ी औरत भीड़ के धक्के से सीढ़ियों पर गिर पड़ी। उसकी लाठी दूर जा गिरी। राघव का गार्ड चिल्लाया, "ए बुढ़िया! दिखाई नहीं देता? साहब आ रहे हैं, हट रास्ते से!"
राघव आगे बढ़ ही रहा था कि उसकी नज़र उस ज़मीन पर गिरी औरत के चेहरे पर पड़ी। झुर्रियों भरा वो चेहरा, वो कांपते हाथ... राघव के कदम वहीं जम गए। वो कोई और नहीं, सावित्री काकी थीं। गाँव छोड़कर शायद किसी रिश्तेदार के पास शहर आ गई थीं।
राघव ने गार्ड को धक्का दिया और दौड़कर काकी के पास पहुँचा। उसने काकी को उठाया। काकी ने धुंधली आँखों से उसे देखा और पहचान नहीं पाईं। राघव का गला भर आया, उसने रुआंसे स्वर में कहा, "काकी... मैं हूँ, तुम्हारा रघु।"
काकी ने चश्मा ठीक किया और गौर से देखा। उनकी आँखों में आँसू आ गए, लेकिन उन्होंने जो कहा, उसने राघव की आत्मा को झकझोर दिया। "रघु? मेरा रघु तो वो था जो किसी को गिरने नहीं देता था। तू तो अब बड़ा साहब बन गया है बेटा... तेरे आदमी तो गरीबों को धक्का मारते हैं।"
प्रायश्चित और नई सुबह
काकी के वो शब्द राघव के सीने में गड़ गए। उसे अपनी सारी दौलत, वो वीआईपी स्टेटस, वो महंगी गाड़ियाँ—सब उस पल मिट्टी के समान लगने लगीं। जिस इज़्ज़त को वो पैसों से खरीदना चाहता था, वो आज अपनी माँ समान काकी की नज़रों में गिर चुकी थी।
राघव वहीं सीढ़ियों पर काकी के चरणों में बैठ गया। उसका महंगा सूट गंदा हो रहा था, पर उसे परवाह नहीं थी। उसने बच्चों की तरह रोते हुए काकी के पैर पकड़ लिए, "मुझे माफ़ कर दो काकी। मैं रास्ता भटक गया था। मैं भूल गया था कि असली अमीरी दिल की होती है।"
सुमन दूर खड़ी यह सब देख रही थी, और उसकी आँखों से खुशी के आँसू बह निकले। आज सालों बाद उसे उसका 'रघु' वापस मिल गया था। काकी ने कांपते हाथों से राघव के सिर पर हाथ फेरा और उसे गले लगा लिया। उस स्पर्श में जो सुकून था, वो राघव को अपने मखमल के गद्दों पर कभी नहीं मिला था।
बदलाव की बयार
अगले ही दिन से राघवेंद्र प्रताप सिंह बदल गए। अब वो सिर्फ़ चेक साइन करने वाले बिजनेसमैन नहीं थे। उन्होंने वृद्धाश्रमों के लिए अपनी एक इमारत दान कर दी। हफ्ते में एक दिन वो खुद अनाथालय जाते और बच्चों के साथ समय बिताते।
शाम की चाय अब अकेले नहीं पी जाती थी। बालकनी में सुमन और राघव साथ बैठते, और कभी-कभी सावित्री काकी भी वहीं होतीं, जो अब उनके साथ ही रहती थीं। घर की दीवारों पर लगे अवॉर्ड्स की चमक फीकी पड़ गई थी, लेकिन घर के लोगों की आँखों में जो चमक और इज़्ज़त थी, वो बेशकीमती थी।
सीख: जीवन में पद और प्रतिष्ठा चाहे कितनी भी ऊँची क्यों न हो जाए, अगर आपके स्वभाव में विनम्रता और अपनों के लिए प्रेम नहीं है, तो आप वास्तव में गरीब हैं। रिश्तों की बगिया को पैसों से नहीं, बल्कि समय और भावनाओं से सींचा जाता है।
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